Ramsnehi Sampraday

चतुर्थ आचार्य श्री नारायणदास जी महाराज

चतुर्थ आचार्य श्री नारायणदास जी महाराज

आपका जन्म सं. 1853 में भूंडेल ग्राम में एक राजपूत परिवार में हुआ। बचपन से ही आपका मन गृहस्थी में नहीं लगा। बल्कि आप ईष्वर भजन की ओर उन्मुख रहे। फलस्वरूप 1860 में केवल 7 वर्ष की अवस्था में वैराग्य धारण कर लिया। आप श्री भूधरदास जी महाराज के षिष्य श्री जीवणदास जी महाराज के षिष्य थे। प्रभु नाम स्मरण करते हुए आपने अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया एवं आप बहुत ही ओजस्वी वक्ता के रूप में विख्यात हुए। आचार्य श्री चत्रदासजी म. के परम धाम पधार जाने पर समाज के सामने फिर समस्या आ गई कि आचार्य पद पर किसे विभूषित किया जाये? इस बारे में विचार विमर्ष हुआ एवं आपका इस पद के लिये चयन किया गया। क्योंकि आप विद्वान एवं समाज की परिस्थिति से भली भाॅंति परिचित थे। सं. 1887 में महा सुदी बारस के दिन आपको गादी पर विराजित किया।

अनेक ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए आपने धर्म का भरपूर प्रचार प्रसार किया। एक अंग्रेज अफसर आपके पास आया तथा आपसे धर्म चर्चा की। वह आपकी बातों से बहुत प्रभावित हुआ। आपकी उस बातचीत को अंग्रेजी लेखक केप्टिन जी.ई. बेस्मकर महोदय ने अंग्रेजी में लिखा जो कलकत्ता की नेषनल लाईब्ररी में सुरक्षित है। उनका हिन्दी अनुवाद शाहपुरा के डा. जावलिया द्वारा किया गया जो रामस्नेही सन्देष में प्रकाषित हो चुका है। आप उस समय के संस्कृत के जाने माने विद्वान थे। आप बहुत ही स्वरूपवान थे। लोग आपके दर्षन कर मन्त्र मुग्ध हो जाते थे। आप चातुर्मास हेतु दिल्ली पधारे तो वहाॅं की जनता आपके दर्षन कर मुग्ध हो गई। उसी समय एक कवि ने अपने भाव इस प्रकार प्रकट किएः-

                                    एक समय दिल्ली शहर, आये दास नारायण।

                                    बहोतन के मन हर लिये, ज्यों गोकुल में कान्हण।।

आप बडे परोपकारी एवं क्षमाषील महात्मा थे। एक बार एक फकीर घूमता घामता शाहपुरा आया और रात्रि के समय रामधाम के सामने वाले चैक में सो गया। पर उसको नींद नहीं आ रही थी और वह जोर जोर से पैर पटक कर रो रहा था। आप बारादरी में परिक्रमा लगा रहे थे। उसके रोने की आवाज सुन कर आप उसके पास आये और रोने का कारण पूछा। उसने कहा कि मैं रोज पांव दबवाता हूं तब नींद आती है। आज कोई पांव दबाने वाला नहीं मिला। तब आपने कहा कि तुम सो जाओे, मैं पांव दबाता हूं। महाराज उसके पैर दबाने लगे। जब उसे नींद आ गई तब आप वापस राम धाम आ गये। ऐसे दयालु थे आप। एक बार टोंक नवाब निम्बाहेडा जाते समय शाहपुरा आया और चैक में डेरा डाला। कुछ मुसलमान सिपाहियों ने रामधाम में जाकर बारादरी में जो पत्थर की लूम्बे लगी हुई थी उन्हें तोड डाली। इस बात का जब नगर वासियों को पता लगा तो वे महाराज श्री को सन्तों सहित राममेडी नामक स्थान पर ले गये। उधर शाहपुरा दरबार ने तोपें चलवाकर उनको भगाया। लेकिन इस काम में छत्री टूट गई जो चत्र महल के ऊपर उत्तर के कोने पर स्थित थी। वे लोग तो चले गये। इधर राज माता ने यह प्रण कर लिया कि इस छत्री का पुनः निर्माण होने पर ही वे अन्न जल ग्रहण करेगी। यह समाचार जान कर राजाधिराज ने तुरन्त छत्री का पुनः निर्माण करवाया। तभी राजमाता ने भोजन ग्रहण किया। पहले आचार्य श्री निवास हेतु कोई भी भवन नहीं था। सब छत्रियों में ही विराजते थे। इस घटना के बाद चत्र महल में जाने की नाल के पास आचार्य श्री के निवास हेतु एक महल बनाया जिसे नारायण निवास के नाम से जाना जाता है। कुछ सन्त व भक्त इसे छवियों का महल भी कहते हैं।

शहर में बनी राम मेडियां पहले एक मंजिल ही थी। महाराज का जब यहां प्रथम बार विराजना हुआ तो असुविधा को देखकर इस पर दुसरी मंजिल का निर्माण कराया गया।

पुनः अठ्याणु फाल्गुण, कृष्ण पक्ष शनिवार।

बनी इमारत भजन हित, नृपमाधोसिंह की बार।।

गादी श्री महाराज की, जन महंत नरायण दास।

रामस्नेहयां तिहि समय, रचियो राम आवास।।

आप श्री के समय में बारादरी के नीचे की परिक्रमा में फर्सी, कठहडा, लाल चैक, ध्रुव खिडकी, सांगरिया का तिबारा बने तथा म. भगवानदास जी, म. तुलसीदास जी, भादराजूण का तिबारा एवं ध्यानदास जी की समाधियां आपके समय में बनी है। एक बार आप भीलवाडा में विराजमान थे। उस समय उदयपुर के महाराणा श्री जवानसिंह जी अपने पिताजी श्री भीमसिंहजी का श्राद्ध करने आये। वहां पर अनेक लोगों ने आपसे प्रार्थना की तब लौटते समय आप सब भीलवाडा में रूके एवं महाराज श्री के दर्षन कर अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने सब सन्तों से अपने योग्य सेवा की प्रार्थना की, सभी से राम राम कर महाराणा वहां से रवाना होकर उदयपुर आये एवं रामद्वारा में अपने गुरू साध श्री साधूराम जी के दर्षन करने गये। वहां महाराणा ने भीलवाडा का विवरण भी सुनाया और निवेदन किया कि सेवा अवसर मुझे भी अवष्य मिलना ही चाहिए। साधूरामजी महाराज ने कहा कि गुरू महाराज श्री रामसेवगजी, महाराज श्री उदैराम जी हांडी वाले व महाराज श्री बडे कान्हडदास जी के षिष्य साध श्री परमलरामजी, इन तीनों ने भीलवाडा में ही देह त्याग किया। जहाॅं उनका अग्नि संस्कार हुआ उस स्थान पर सन्तों के निवास हेतु एक एक तिबारा बनवा दिया जाये। तब महाराणा ने आज्ञा स्वीकार कर सं. 1896 में भीलवाडा में तीनों महापुरूषों की समाधियां बनवा दी। इस प्रकार आपके समय में धर्म का प्रचार प्रसार एवं निर्माण कार्य काफी हुआ। आपके चातुर्मास तो कई हुए पर केवल पाॅंच चातुर्मास को ही जानकारी उपलब्ध है। जो इस प्रकार है वि.सं. 1888 का चातुर्मास लाखेरी में, वि.सं. 1889 का चातुर्मास उदयपुर महाराणा श्री जवानसिंह ने रामद्वारे में, वि.सं. 1894 में चाकसू टोंक में, वि.सं. 1898 में पाली में, एक चातुर्मास दिल्ली पहाडगज बडा रामद्वारे में। 1905 में आपका चातुर्मास मेडता में हुआ। आपके कोई षिष्य नहीं था। आपके स्थान भी नहीं हैं। सं. 1905 में मगसर बुद नवमीं रविवार को आप परम धाम पधारे।

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