Ramsnehi Sampraday

तृतीय आचार्य श्री चत्रदास जी महाराज

तृतीय आचार्य श्री चत्रदास जी महाराज

आपका जन्म वि.सं. 1809 में ग्राम आलोरी जाति काछोला चारण में हुआ। आप वि.सं. 1821 में 12 वर्ष की अवस्था में महाराज श्री रामचरण जी के षिष्य बने। आप उच्च कोटि के भक्त थे एवं हर समय नाम स्मरण में लीन रहते थे। आपने अनुभव वाणी की रचना की इस वाणी से प्रतीत होता है कि आप वैदान्त के प्रखर ज्ञाता थे। आपने श्री महाराज की, श्री वीतराग महाराज की एवं श्री दूल्हेराम जी महाराज की तन मन से सेवा की, एवं सदैव गुरू की आज्ञा में रहे। आप निषिदिन प्रभु भजन में तल्लीन रहते थे। श्री दूल्हेराम जी महाराज के परम धाम पधारने पर सभी सन्त, राजा व सम्प्रदाय के सेवकों ने मिलकर आचार्य पद के लिये आपका चयन किया। आप इतने निस्पृह थे कि आपने इस पद को स्वीकार नहीं किया। तीन माह तक गादी सूनी रही। अन्त में शाहपुरा के राजाधिराज श्री अमरसिंह जी ने पूज्य सन्त महाराज के चरणों में उपस्थित होकर निवेदन किया कि सब लोग आपका सानिध्य पाने को लालायित है। समाज का संरक्षण कार्य इस समय दूसरों के द्वारा हो पाना कठिन हैं। अतः आप इस जिम्मेदारी को स्वीकार कीजिये। तब महाराज ने स्वीकृति प्रदान की।

फलस्वरूप सं. 1881 की कार्तिक बुद बीज रविवार को आप गादी पर विराजे। सब सन्त एवं भक्त प्रसन्न हुए। आप आठों पहर भजन में रत रहते थे। आप देह रहते हुए भी राजा जनक की भाॅंति देहातीत थे। अपने शरीर से भी आपको कोई मोह नहीं था। इस बारे में एक विचित्र घटना मिलती हैं। एक बार आपकी पीठ पर मांदल चिपक गई। यह लम्बी होती है। यह चमडी को पकड लेती है। जब सन्त और भक्तों ने यह देखा तो वे प्रयास पूर्वक उस मांदल को चमडी पर सेे हठाने लगे। वह बुरी तरह चमडी से चिपट गई थी। महाराज श्री ने सबको मांदल हटाने से मना कर दिया। आपने कहा कि इस जीव को मत सताओ, इससे मुझे कुछ भी कष्ट नहीं है। वह मांदल चिपकी रही और कहते हैं उस पर शरीर की चमडी चढ गई। महाराज ने उस कष्ट को भी प्रसन्नता से सहन कर लिया। परन्तु आप कमर से कुछ झुक गये। तब सन्त व भक्तों ने एक पत्थर का मोडा बनवाकर गादी के पास लगा दिया। महाराज उसका सहारा लेकर विराजने लगे। आपके कार्य काल में धर्म का बहुत प्रचार प्रसार हुआ। अनेक राजा महाराजाओं ने आपको आमन्त्रित किया एवं आपका सम्मान किया। बारादरी के ऊपर जो छत्रियाॅं बनी हुई है वे आपके समय में ही बनी। उसे लोग चत्र-महल के नाम से पुकारते हैं। इन छत्रियों के सबसे ऊॅंचे गुम्बज में श्री महाराज की हस्त लिखित वाणी की पुस्तक रखी गई। इससे आपका धाम की रक्षा का अटूट श्रद्धा भाव लक्षित होता है। नये आचार्य का चुुनाव चत्रमहल में ही होता है पहले गर्मी के मौसम मे आचार्य श्री रात्रि विश्राम इसी स्थान पर करते थे। चत्र महल का निर्माण 1881 में हुआ था। आपके कई चातुर्मास हुए जिनमें शाहपुरा एक चातुर्मास शेखावाटी के सीकर नगर में भी हुआ। आप वि. सं. 1887 में माह विद 30 को ब्रहम्लीन हुए।

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