Ramsnehi Sampraday

द्वितीय आचार्य श्री दूल्हेरामजी महाराज

द्वितीय आचार्य श्री दूल्हेरामजी महाराज

जयपुर नरेष श्री माधवसिंह जी के दीवान श्री हरिगोविन्द जी खण्डेलवाल वैष्य, गौत्र नाटानी की सुपुत्र के साथ हुआ। समय पाकर जेष्ठ सुदी 11 सं. 1813 में उनके एक पुत्र हुआ जिसका नाम दल्लाजी रखा। धीरे धीरे आप बडे हुए, पढ लिख कर योग्य बने एवं व्यापार करने लगे। एक दिन आप दुकान पर बही खाता लिख रहे थे। उस समय एक सन्त आये और आपकी ओर देखकर एक साखी का उच्चारण किया:-

क्यों कागज काला करो, इन बातन क्या होय।

रामचरण भज राम कूं, दिल का दस्ता धोय।।

वह संत तो चले गये मगर दल्लाजी के विचारर के लिये एक बिन्दु छोड गये। इसी बीच आपका सम्बन्ध उदयपुर महाराणा के दीवान श्रीरामलालजी की सुपुत्री चन्द्रप्रभा के साथ हुआ, ठाट बाट से बारात भी रवाना हो गई। रास्ते में रात्रि को जून्याॅं नामक ग्राम में विश्राम किया दैवयोग से वहां भी एक संत मिले और उन्होंने भी आपको चेतावनी दी:-

आया था कुछ ओर कूं, आय बणी कुछ ओर।

डेरा खोया गांठ का, देख चले लाहोर।।

यह आपके मस्तिष्क पर दूसरी चोट थी। आपने गहन विचार किया और जिस प्रकार सर्प कंचुली छोड देता है वैसे ही आपने भी उस दूल्हा वैभव को छोड दिया एवं चुपचाप शाहपुरा के लिये रवाना हो गये। घरवाले एवं बाराती आपको ढूॅंढते ही रहे पर कहीं पता नहीं चला। आप उसी रात को महाराज श्री रामचरणजी की सेवा में पहुॅंच गये। आपको दूल्हे के वेष में देख कर महाराज श्री ने फरमाया आओ दूल्हेराम तब से आपका नाम दूल्हेराम हुआ। आप गुरूचरणों में रह कर वैराग्य युक्त जीवन व्यतीत करने लगे। महा सुदी 1 सं. 1833 में आप दीक्षित हुए। विवाह तिथि के चार दिन पहले आप संत बन गये। गुरू महाराज द्वारा बताई गई विधि से आप राम भजन करने लगे। गुरूदेव से आज्ञा लेकर आप कुछ समय के लिए सांगरिया चले गये। वहां पर एक सन्त ने आपको साखी सुनाई:-

रामचरण सार्दूलसिंह, भुजा कुमायो खाय।

ताकि उचिष्ठ ऊपर, श्वान स्याल घुर्राय।।

यह सुनकर आप वहां से प्रस्थान करके सरवाड होते हुए पुनः शाहपुरा लौट आये। सं. 1835 में धर्म प्रचारार्थ आपने यहां से प्रस्थान किया एवं रतलाम चले गये। वहां पर आपके नौ षिष्य बने जिन्होंने वैराग्य धारण किया। एक बार भ्रमण करते समय सन्तों को तीन दिन तक महाप्रसाद व जल भी नहीं मिला। सन्तों के निवेदन करने पर आपने कहा कि राम गुरू का भरोसा रखो सब ठीक होगा। उसी समय भगवान पधारकर भोजन व जल रख कर अदृष्य हो गये। सन्तोें ने भोजन व जलपान किया। आगे चलकर आपने रेवा नदी में स्नान किया एवं गुजरात के बडौदा नगर में पहुॅंचे। वहां पर आपने एक स्थान पर आसन लगा लिया। उन दिनों सर्दी का मौसम था। आपके पास था एक साधारण वस्त्र। एक सेठ दर्षनार्थ आया एवं प्रभावित होकर आपको एक दुषाला ओढा दिया। महाराज वहां से भ्रमण के लिये चल दिए दुषाला तो कहीं रास्ते में ही गिर गया। महाराज अपने ध्यान में चलते गये। वह दुषाला किसी व्यक्ति ने उठा लिया। चढाने वाले सेठ ने उसे देखा तो पूछताछ की। सारी बात सुनकर वे महाराज से अत्यन्त प्रभावित हुआ। वे वहां पहुॅंचे जहां महाराज विराजमान थे। सेठ ने दर्षन किये एवं शहर में पधारने हेतु निवेदन किया। महाराज ने स्वीकृति प्रदान की एवं शहर में आ गये। वहाॅं आपने निरन्तर सात चातुर्मास किये एवं धर्म का खूब प्रचार प्रसार किया और रामद्वारा का भी निर्माण हुआ।

वहां से प्रस्थान कर आप इन्दौर गोराकुण्ड पहुॅंचे। वहां आपके साथ सन्त रामनरहरिजी थे। वहां कुछ दिन ठहर कर आप उज्जैन चले गये। कुछ दिन वहां उपदेषों द्वारा धर्म प्रचार करते हुये आप सिहोर नामक स्थान पर आये। वहां लोगों में भक्ति भावना नहीं थी, भिक्षा में आपको आधी ठण्डी रोटी दी। जिसे ले जाकर आपने राम गुरू के भोग लगाया। एवं सब सन्तोें को प्रसाद दिया। आष्चर्य है कि सब सन्त उससे तृप्त हो गये जैसे महर्षि दुर्वासा भगवान कृष्ण के पत्ते से तृप्त हुए थे। कुछ समय बाद रामप्रसादजी कायस्थ दर्षन करने के लिये गये। वहां उन्होंने सारी घटना सुनी। घर जाकर परिवार वालों को सुनाई। सब बडे प्रसन्न हुए, दर्षनार्थ आये एवं वहीे विराजने की प्रार्थना की। महाराज को ले जाकर भगवान शंकर के मठ में ठहराया। महाराज सन्त मण्डली सहित रात दिन राम स्मरण में लीन रहते थे। जनता को उपदेष भी करते थे। रात्रि को सन्त क्या करते हैं यह देखने के लिये एक व्यक्ति द्वेष भावना से वहां आकर छिप गया। वहां पर उस व्यक्ति को काले सर्प ने डस लिया। वह हाहाकार करता हुआ गिर पडा महाराज को इस बात का पता चला। सन्तों ने चरणामृत ले जाकर उस पर छिडका और वह जी उठा। महाराज के चरणों में गिरकर अपराध की क्षमा मांगने लगा। महाराज ने उसे राम मन्त्र का उपदेष दिया। कंवरपदा में 9 चातुर्मास सिहोर में किये। इसी प्रकार किसी व्यक्ति ने श्मषान में जाकर आप पर मारक मन्त्र का प्रयोग किया। महाराज व सन्त तो भजन में लीन थे। मूठ  लौटकर उसी व्यक्ति पर गई। वह दुखी हुआ और महाराज की शरण में आया। आपने उसे भी राम मन्त्र का उपदेष दिया। इस प्रकार 10 वर्ष तक भ्रमण करने के पश्चात् आप गुरूदेव की सेवा में शाहपुरा आ गये। श्री महाराज जब ब्रहम्लीन हुए तब आप श्री महाराज की सेवा में ही थे। श्री वीतराग महाराज को गादी नसीन किया। इसके पश्चात् भी आप भ्रमण व धर्म प्रचार करते रहे एवं वापस शाहपुरा आये। श्री वीतराग महाराज के परम धाम पधार जाने पर सन्त सेवक व राजाधिराज अमरसिंह जी ने मिलकर आपको आषाढ सुद 8 सोमवार सं.1867 में गादी नसीन किया। इसके पश्चात् भी ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए धर्म प्रचार करते रहे। आपका उदयपुर में भी भीमसिंह जी ने प्रार्थना पत्र भेजे। आपने अपने गुरू महाराज श्री ध्यानजी म. को भी भेजा एवं निवेदन कराया। महाराज श्री ने स्वीकृति प्रदान की। उदयपुर में फूलडोल उत्सव हुआ तथा संवत् 1876 में आपका चातुर्मास भी वहीं पर हुआ। महाराणा साहब ने आपके विराजने के लिये एक गादी लगवाई। तभी से गुरूद्वारे शाहपुरा में गादी लगने की परम्परा प्रारम्भ हुई। इसके पूर्व चटाई का ही आसन था। अनेक राजा महाराजाओं ने आपका सम्मान किया। सूरज पोल पर कबाण्यां आपके समय में बनी। आप महान योगी थे। आपने 6 माह पहले ही अपने शरीर त्याग का समय बता दिया था।

खबर लही षट मास अगाऊ जन्नजी।

दक्षिण भानु उत्तरार्ध तजेगें तन्नजी।।

त्रिकालीक तहकीक सिद्धान्ती का।

इस प्रकार आपने आषाढ बदी 10 संवत् 1881 मंगलवार को देह त्याग दिया। आपका अग्नि संस्कार राम धाम के दक्षिण में किया गया। आपने शादी तोरण पर जाते समय दीक्षा ग्रहण की थी। अतः आपकी छतरी के आगे तोरण बना हुआ है जो तोरण वाली छतरी के नाम से विख्यात है। श्री महाराज द्वारा आपको प्रदत्त काली कम्बल आज भी बडौदा के रामद्वारा में सुरक्षित है। मेवाड, मालवा, गुजरात, सौराष्ट्र में भी आपके स्थान है। आपने समाज पर लगभग 14 वर्ष शासन किया। आपके समय में समाज की मर्यादायें दृढ हुई। खालसा एवं थांबायत परम्परा का चलन तभी से शुरू हुआ। आपकी वाणी में दस हजार छन्द व साखियाॅं है। यह हस्त लिखित भी है जिसका प्रकाषन आपकी ही परम्परा के परम विद्वान संत रामप्रसाद जी बडौदा वालों के प्रयास से वि.सं. 2070 में हो गया।

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