Ramsnehi Sampraday

वीतराग स्वामी जी श्री रामजन्न जी महाराज

वीतराग स्वामी जी श्री रामजन्न जी महाराज

श्री रामजन्न जी महाराज का जन्म स. 1801 में सरस्या ग्राम के एक माहेष्वरी लड्डा परिवार में हुआ। सं. 1824 में आपने भीलवाडा में वैराग्य धारण किया। आपको वाणी में ऐसा संकेत मिलता हैः-

मुलक जहां मेवाड है, पुर भीलवाडो जान।

रामचरण प्रगट भये, पूरण ब्रह्मा प्रमाण।।

                                    जिस प्रकार लक्ष्मण ने भगवान राम की सेवा की, उसी प्रकार आपने अपना सम्पूर्ण जीवन गुरूदेव की सेवा में लगाया। गुरू-चरणों को छोडकर आपने कहीं भी रामत नहीं की। गुरू आज्ञा में रहकर अपना तन-मन गुरू चरणों में न्यौछावर कर दिया। इसी कारण से आपको रामस्नेही सम्प्रदाय के प्रथम आचार्य पद पर विभूषित किया। श्री महाराज भी आपकी अगाध सेवा से प्रसन्न थे। एक बार जब सन्तोें ने यह प्रष्न उठाया कि गुरूदेव के बाद हमारा संरक्षण कौन करेगा? तब श्री महाराज ने संकेत रूप में कहाः-

जत पूरा सत शूरवा भरम तज्यां भजनीक।

उर साता विपता विगत स्वाल संभाषण ठीक।।

स्वाल संभाषण ठीक पीक परवित की नाहीं।

ज्ञान दान दातार सदा आसति बरतांही।।

ऐसे निज जन राम का ज्यां रहिये सदाजनिक।

आप इतने ग       ुरू भक्त थे कि श्री महाराज ने स्तुति के 5 पद फरमाये हैं तो आपने 4 ही लिखे। आपने भी वाणी की रचना की। जब आपको पता लगा कि आपकी वाणी में गुरूदेव की वाणी से अधिक छन्द-साखियाॅं हो गई हैं, तो शेष अपने बडे गुरू भाईयों को भेंट कर केवल 18,000 की संख्या ही रखी। आपकी वाणी प्रकाषित है और हस्तलिखित भी है। फूलडौल के अवसर पर नित्य अपराह्न 3 से 4 बजे तक आपकी वाणी का पाठ होता है। मेवाड के महाराणा श्री भीमसिंह जी ने आपको चातुर्मास हेतु आमन्त्रित किया था पर वहां नहीं पधारे और यह साखी फरमाईः-

राजदुवारे रामजन्नतीन बात सूं जाय।

कै मीठा कै मान कूॅं कै कुछ लेणे की चाय।।

आपके शासन काल की प्रमुख बात यह रही कि आपके समय में श्री रामनिवास धाम का निर्माण हुआ। आपके समय में आचार्य श्री का आसन चटाई पर था। समाज में आपको वीतराग सन्त के नाम से पुकारा जाता है। आपके चरणों में शाहपुरा, बनेडा, उदयपुर, नागौर, मेडता, कोटा आदि अनेक राजाओं ने मस्तक नवाकर श्रद्धा-सुमन अर्पित किये। आपने 1855 में शाहपुरा, 1862 में चाकसू, 1862 में मेडता आदि अनेक स्थानोें पर चातुर्मास साधे।

श्री महाराज के बडे ग्रन्थों के शब्द जोड व ग्रन्थ दृष्टान्त सागर की टीका आपके द्वारा की गई। आपने गुरू विरह में रामपद्धति ग्रन्थ की रचना की। आपकी वाणी से ऐसे प्रतीत होता है, कि आप वेदान्त और ज्योतिष के भी अच्छे ज्ञाता थे। आपके स्थान सूरत, बडौदा, अहमदाबाद, ग्वालियर, सीकर में है। श्री महाराज के पास एक दादूपंथी संत ने आकर कहा कि महाराज हमारे महात्मा सुन्दरदास जी ने बिना काना माथा का शब्द कहा है। आपके शब्दों में तो ऐसा नहीं है। तब श्री महाराज ने वीतराग श्री रामजन्नजी मं. की ओर संकेत किया। तब आपने समाधि लगाकर 31 मनहर छन्द बनाकर सुना दिये जो वाणी में ग्रन्थ विचार बोध के नाम से प्रसिद्ध है जिसका एक उदाहरण इस प्रकार है-

अष्टदस जस कर परम धरमधर समर तमर हर रसन रटतह।

चत्र सट हटफल नवनज अजबल सरल चतर दस गरल मटतह।।

सबद पवन मन जटत बसत बन नटत ससन तन बधन कटतह।।

अटकन अटपट रजतम सतदट नगन मगन भ्रमस फटतह।।

इस प्रकार आप 12 वर्ष तक गादी पर आसीन रहे। आप बैषाख सुदी 3 सं. 1855 में गादी पर विराजे एवं आषाढ बुद्ध 11 बुधवार वि.स.1867 को ब्रहम्लीन हुए एवं जैसी श्री महाराज की काली कम्बल है वैसी आपकी भी है जो कि भण्डार में विराजमान रहती है। आपकी समाधि श्री रामनिवास धाम के दक्षिण भाग में है। आपकी गुरू भक्ति का सम्मान आज भी समाज में उसी प्रकार है। आप एकादषी को ब्रहम्लीन हुए। जब महाराज श्री दूल्हेरामजी से सन्ता व सेवकों ने प्रार्थना की कि महाराज श्री वीतराग की वाणी का पाठ हर एकादषी को व फूलडोल में तीसरे पहर होना चाहिए। आचार्य श्री ने स्वीकृति प्रदान कर दी तथा आज तक वह परम्परा चल रही है।

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