षष्ठ्म आचार्य श्री हिम्मतराम जी महाराज
आपका जन्म शेखावाटी के धानणी ग्राम में, आसोज बुद 14 सं. 1883 को मारू चारण जाति में हुआ था। आपने सं. 1907 में श्री वीतराग स्वामी जी के षिष्य साध श्री सुखरामदास मुनि जी से दीक्षा ग्रहण कर वैराग्य धारण किया। आप जब बालक थे तभी आपके पिताजी का स्वर्गवास हो गया। आपकी माता भी सती होने के लिये चिता में बैठ गई तो गांव वालों ने कहा कि आप तो सती हो रही है पर इस बालक का क्या होगा? तब उनकी माताजी ने कहा कि आप लोग चिन्ता न करें। यह तो भविष्य में ऐसा महात्मा होगा कि सारा संसार इसके पांवो में गिरेगा। ऐसा कहकर वह सती हो गई। इस कारण आपको सती पुत्र भी कहते हैं। दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् आपने वाणी जी का अध्ययन तो किया ही पर साथ में संस्कृत भाषा का भी गहन अध्ययन किया। आप कुछ समय काषी में रहे एवं वहां अनेक कठिनाईयों का सामना करते हुए, 4 वेद, 6 शास्त्र, 18 पुराण, 9 ग्रन्थ व्याकरण आदि ग्रन्थों का अध्ययन किया। उस काल में अन्य किसी सन्त ने इतने ग्रन्थों का अध्ययन नहीं किया था। फलस्वरूप आपकी विद्वता की प्रषंसा समाज में चारों ओर फैलने लगी।
जब आचार्य श्री हरिदास जी महाराज ब्रहम्लीन हो गये तब सन्त व सेवकों ने आचार्य पद के लिये आपको चुना व बैषाख बुद 5 मंगलवार सं. 1921 को आपको गादी पर विराजित किया। आपके समय में इस सम्प्रदाय का इतना प्रबल प्रचार प्रसार हुआ कि सब आष्चर्य चकित रह गये। उस समय एक प्रकार से शास्त्रार्थ का युग था। आचार्य श्री के पास अनेकों प्रष्न पत्र आते आप निर्भिक रूप से उनका उत्तर लिखते एवं वापस प्रष्न पूछते जिनका उत्तर वे लोग नहीं दे पाते हैं। ऐसे अनेकों उदाहरण हैं। नसीराबाद, ब्यावर एवं अजमेर से प्र्रष्न पत्र आये वे तो प्रकाषित भी हो चुके है। महर्षि स्वामी दयानन्द आपके ही समकालीन थे जिन्होंने आर्य समाज की स्थापना की, वैदिक धर्म का प्रचार किया एवं राजा महाराजा तथा जनता को धर्म का मर्म समझाते हुए उनका मार्ग दर्षन किया। स्वामी दयानन्द जब शाहपुरा आये तो आपने राज परिवार को उपदेष दिया एवं तत्कालीन राजाधिराज श्री नाहरसिंहजी ने उनको अपना गुरू बनाया। एक बार राजाधिराज जब रामद्वारा जाने लगे तो स्वामीजी ने पूछा कि आप कहां जाते हैं? उत्तर में उन्होंने बताया कि मैं रामद्वारा में आचार्य श्री हिम्मतराम के दर्षन करने जाता हूॅं एवं शास्त्र चर्चा करता हूॅं। स्वामी जी ने भी साथ चलकर शास्त्रार्थ करने की इच्छा प्रकट की। पर राजाधिराज ने कहा कि आप वहां न चल कर जो भी प्रष्न करना हो पत्र पर लिख दीजिये। स्वामी जी ने कुछ प्रष्न लिख कर दे दिये। राजाधिराज ने वह पत्र महाराज श्री को दिया। महाराज श्री ने उन प्रष्नों भी और नये प्रष्न भी। उसे पढकर स्वामीजी के मुह से निकला राजन् ! ये महात्मा बहुत उच्च कोटि के विद्वान है। समयाभाव से आप प्रष्नों का उत्तर नहीं दे सके पर महाराज श्री की विद्वता की आपने प्रषंसा की। आपके समय में अनेकों जगह शास्त्रार्थ होते रहते थे। आप प्रत्येक स्थान पर विजयी होते थे। आपके शासन काल में समाज के कार्य संस्कृत में अधिक हुए। अनेक सन्तों ने संस्कृत का अध्ययन किया आप स्वयं ने भी संस्कृत में एक ग्रन्थ की रचना की। जिसकी टीका कराने के लिए आचार्य श्री निर्भयरामजी म. ने बहुत प्रयत्न किया पर उसकी सही टीका कोई भी नहीं कर पाया। वह ग्रन्थ रामधाम में आज भी सुरक्षित है व आपके द्वारा ग्यान पच्चीसी की रचना की गई। इस अनूठे ग्रन्थ की टीका आपके षिष्य सन्त श्री केषवरामजी सैलाना वालों ने की थी आपके कुछ ग्रन्थ क्रमषः श्री रामस्नेही भास्कर, मासिक पत्रिका में प्रकाषित हो चुके हैं।
आपके समय में सम्प्रदाय में षिष्यों की संख्या बहुत बढी। आप श्री के चातुर्मास शाहपुरा के अतिरिक्त बाहर भी काफी हुए। सं. 1921 से सं. 1924 तक शाहपुरा, सं. 1925 में महारावल कोटा ने आपका चातुर्मास कराया। सं. 1926 में फिर शाहपुरा में, स.ं 1927 में उदयपुर के महाराणा श्री शम्भूसिंह जी ने चातुर्मास झालरापाटन में हुआ। सं. 1930 में चातुर्मास भीलवाडा में हुआ। स.ं 1931 में चातुर्मास शाहपुरा में हुआ। सं. 1931 में उदयपुर महाराणा श्री शम्भूसिंह जी ने यहां फूलडोल भी करवाया जिसमें 533 सन्त महाराज श्री के साथ थे। स.ं 1935 से चातुर्मास भीलवाडा में हुए। स.ं 1936 का चातुर्मास शाहपुरा में ही हुए। स.ं 1937 का चातुर्मास रायपुर में हुआ। सं. 1940 का चातुर्मास राम बाग स्थित रामद्वारा, जयपुर में हुआ। वहां लष्कर के महाराजा जियाजीराव ने आपको आदर सहित निमंत्रित किया आप 300 सन्तों सहित वहां गये एवं मोती महल नामक स्थान में विराजे। वहां भावभीना आदर सत्कार हुआ। आपके चातुर्मास 1943 में कपासन में 1945 में गंगापुर में एवं 1946 में पाली में हुए। नई दिल्ली, सवाई माधोपुर एवं चित्तौड में भी आपके चातुर्मास हुए। आप उदयपुर पदार्पण के समय मावली के निकट एक चारण आपके दर्षन करने आया। सन्तों के दर्षन कर वह बडा आनन्दित हुआ एवं एक साखी कहीः-
केहि काला केहि विदेहिजू, केही मस्त भडंग।
या हिमतेस नरेष, लगी लूंब लडंग।।
उदयपुर में ही पहले महाराणा भीमसिंह जी ने आचार्य श्री के 1 गादी लगाई थी। महाराणा शंभुसिंहजी ने 2 गादी एवं मोडा लगवाया तभी से शाहपुरा में दो गादी एवं मोडा लगता है वह परम्परा आज तक चल रही है। बालोतरा के साध म. जगरामदासजी को कवंर पदे में आप तुम्बी देने लगे। तब उन्होंने निवेदन किया कि महाराज श्री ने कहा कि बाद में भी संभालना पडेगा और जगरामदास जी महाराज बाद में आचार्य पद पर बिराजे। इसी प्रकार गंगापुर के साध म. हरिसुखराम जी को भी आपने जल पात्र प्रदान किया। वह जल पात्र आज भी मौजूद है। आपका प्रस्ताव भी आचार्य पद के लिए आया पर आपने इन्कार कर दिया। विसन्या के साध म. दिलसुधराम जी को, भींडर महाराज मदनसिंह जी ने मय लवाज में के पधरावणी कराई। महाराज श्री को इसकी खबर लगी तो आपने कहा कि इतनी जल्दी क्यों की यह तो देर सवेर होना ही था। महाराज श्री दिलसुधराम जी भी आचार्य पद पद प्रतिष्ठित हुए। चैत्र सुद 9 शनिवार वि. सं. 1947 को आप ब्रहम्लीन हुए। आपने 26 वर्ष तक शासन किया।
-ःसोरठाः-
हिम्मतराम महाराज, कलियुग में अवतार ले।
सार्या सब का काज, आप मिले परब्रह्म सूं।।
आपकी षिष्य परम्परा अद्यावधि चल रही है। देवास, मऊ, सेलाना, बडनगर, पीपलोदा, बडावदा, जावरा आदि पर आपके स्थान है। आपके परमधाम पधारने का समाचार सुनकर भीलवाडा के भण्डारीव आपके षिष्य साध जालरामजी महाराज ने राम नाम लेकर गुरूविरह में प्राण त्याग दिये। आपका समाधिस्थल बना हुआ है। ऐसे ही अनेक सन्तों ने देह त्याग किया। यह महाराज श्री के प्रति प्रेम एवं निष्ठा का परिचायक है।
रामनिवास धाम में रंगमहल, सरस्वती भण्डार, 6 चैकियां, हिम्मत निवास, गोल नाल, हवा महल, बादल महल, बारादरी के आगे वाली दो छतरी व संगमरमर के दो कबाण्ये तथा शहर में राम हवेली आपके समय में ही बनी। इस प्रकार आपका शासन काल, संत वृद्धि, भवन वृद्धि एवं ख्याति वृद्धि सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण रहा है।