Ramsnehi Sampraday

सप्तम् आचार्य श्री दिलषुद्धराम जी महाराज

सप्तम् आचार्य श्री दिलषुद्धराम जी महाराज

आपका जन्म सं. 1910 में ग्राम अभयपुर में एक राजपूत परिवार मेें हुआ था। संवत 1915 में केवल पांच वर्ष की अवस्था में ही आपने वैराग्य धारण कर लिया था। ग्राम बिसन्या के स्वामी रामदासजी म. के षिष्य साध श्री रतनदास जी के पास आपने दीक्षा ग्रहण की एवं उन्हें अपना गुरू बनाया। आपने राम नाम का स्मरण कर अपने जीवन में अद्वितीय शक्ति प्राप्त की। आप महान स्वामी, तपस्वी एवं भजनीक महापुरूष थे। अनेक ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए आपने खूब धर्म प्रचार किया।

आचार्य श्री हिम्मतराम जी महाराज ने आपको भीण्डर पधरावणी के बाद तूम्बिका प्रदान की थी। अतः उनके निधन के पश्चात् उक्त संकेत को ध्यान में रख कर संत व भक्तों ने चुनाव प्रक्रिया के द्वारा वैषाख बुद 6 गुरूवार संवत् 1947 को आपको गादी पर विराजित किया। आपका अधिकांष समय भजन स्मरण में ही व्यतीत होता था। आप दूसरों के मन की बात भी जान लेते थे तथा उसका कार्य सम्पन्न कर देते थे। एक बार बिसन्या के सरावगी श्री सूरतरामजी झांझरी बहुत बीमार हो गये और शरीर छूटने जैसी स्थिति आ गई। इस बीच एक भाई प्रायः शाहपुरा आते जाते रहते थे। वे जब भी शाहपुरा जाते तो श्री सूरतरामजी आचार्य श्री दिलषुद्धराम जी महाराज को राम राम अर्ज कराते आचार्य श्री भी वापस राम राम कहलवा देते। एक दिन श्री सूरतराम जी ने मन में विचार किया कि अगर मैं ठीक हो जाऊं तो इस साल फूलडौल मेले में वाणी जी की पुस्तक को सिर पर लूं। फिर यदि शरीर चला भी जावे तो चिन्ता नहीं। उनकी यह भावना श्री दिलषुद्धराम जी महाराज ने जान ली। इस बार जब वही गृहस्थी श्री सूरतरामजी का राम राम आचार्य श्री को निवेदन किया तो आचार्य श्री नाराज होकर बोले कि बार बार राम राम कहलवाते है। उनसे कह देना कि राम गुरू महाराज तुम्हारी इच्छा पूरी कर देंगे। यह सुन कर श्री सूूरतराम बडे प्रसन्न हुए। वे धीरे-धीरे स्वस्थ हो गये। फूलडौल पर वे शाहपुरा गये और पाॅंच दिन तक वाणी जी को सिर पर धारण किया। चेत बिद 5 को जागरण करके आचार्य श्री राममेडियां से रामनिवास धाम पधारे और उसी समय श्री सूरतराम जी ने राम जी राम राम महाराज की आवाज कर शरीर छोड दिया। आप अपने भक्तों की भावना के अनुसार उनका कार्य पूरा करते एवं उनको दर्षन देते थे। शाहपुरा का एक गुर्जर भाई था। वह राज दरबार में नौकर था एवं महाराज के चरणों में उसका अगाध विष्वास था। वह दर्षन करने हेतु जगदीषपुरी को गया। वह महाराज के दर्षन करने मन में चिन्ता लेकर ही गया कि महाराज का स्वास्थ्य नरम है न जाने लौटने पर मुझे दर्षन होंगे कि नहीं इस प्रकार चिन्ता करता हुआ जगदीषपुरी पहुॅंचा और रात्रि को वहीं चैक में सो गया। इधर महाराज श्री परम धाम पधार गये। पर उस भक्त को दर्षन देना था अतः विमान जब पुरी के ऊपर से गुजरा तो उसमें से आवाज आई, ‘राम’ वह भक्त जग कर एक दम उठा और आकाष की ओर देखा तो उसे महाराज श्री के दर्षन हुए। शाहपुरा लौटने पर उसने यह घटना सब सन्तों एवं भक्तो को सुनाई। सबको आष्चर्य हुआ एवं विष्वास हो गया कि महाराज तो राम रूप ही थे।

बडे बडे राजा महाराजाओं ने आपके चरणों में अपना मुकुट रखा, उपदेष श्रवण किया एवं हर प्रकार से आपकी सेवा की। आपके पहले कोई भी आचार्य गुजरात प्रदेष में पधारे। सं. 1948 में गले मण्डी, जूना रामद्वारा के सन्त व भक्तों की प्रार्थना स्वीकार कर सूरत में चातुर्मास किया। यह चातुर्मास बहुत की सफल रहा एवं धर्म का प्रचुर मात्रा में प्रचार प्रसार हुआ। 1953 का चातुर्मास आपने रामनिवास धाम शाहपुरा में ही किया। उस समय आपका स्वास्थ्य बहुत नरम था। एक दिन आपने सन्तों से पूछा कि यह कौनसा महिना है? सन्तों ने निवेदन किया कि यह भादवा का महिना है। इस पर महाराज श्री ने कहा कि सन्त चैमासा में रामत नहीं करते। धीरे धीरे चातुर्मास बीत गया। सन्त दषहरे का प्रणाम करने हेतु पहुंचे तो महाराज श्री ने कहा कि ग्यारस की बैठक के पहले कोई रामत न करे। महाराज श्री ने ग्यारस की रात को 12ः30 बजे शरीर छोड दिया इस प्रकार आपने दषहरे तक अपने प्राणों को रोके रखा जैसे महाराज भीष्म ने सूर्य के उत्तरायण आने तक अपने प्राणों को रोक लिया था। संवत 1953 में आसोज सुद 12 रविवार को 12.30 बजे परम धाम पधार गये। आपने 6 वर्ष 6 महीने तक समाज का शासन किया। आपके चातुर्मास का ब्यौरा इस प्रकार है। 1947 शाहपुरा, 1948 सूरत गलमेण्डी जूना रामद्वारा, 1949 शाहपुरा , 1950 कोटा महारावल साहब के यहां, 1951 रतलाम, 1952 पहाड गंज बडा रामद्वारा नई दिल्ली तथा 1953 शाहपुरा।

आपके समय में रामधाम में कंवरपदा का महल बना। आपके खालसा के सन्त वंष की परम्परा अब तक चालू है। आपके स्थान केकडी, मालपुरा सत्संग भवन आदि है। गादी पर विराजने से पूर्व आप काली चादर धारण करते थे इस लिये आपकी समाधि के आगे की छोटी छत्री खम्भों के यहाॅं काले पत्थर की कोर निकली हुई है।

श्री गुरूदेव दयाल दया कर, आप लियो कलि में अवतारा।

भक्ति के मण्डपा भरम के खण्डण, काल के दण्डण नाम तुम्हारा।

संतों के महन्त विग्यान अनन्त, भजै भगवन्त अखण्ड धारा।

श्री दिलषुद्धराम गये सुख धाम, करूं मैं प्रणाम अनन्त अपारा।।

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