Ramsnehi Sampraday

अष्टम आचार्य श्री धर्मदास जी महाराज

अष्टम आचार्य श्री धर्मदास जी महाराज

आपका जन्म कार्तिक बुद 12 सं. 1906 में पलई ग्राम जिला टोंक के एक खण्डेलवाल मेहता परिवार में हुआ था। बचपन से ही आपकी वृति वैराग्य की ओर थी। सं. 1918 में, बारह वर्ष की अवस्था में ही आपने करौली के साध श्री राम गोविन्द जी से दीक्षा ग्रहण की। कुछ समय तक आपने वाणी का अध्ययन किया। फिर आप काषी चले गये। अध्ययन काल में आपको कई कठिनाईयों का सामना करना पडा पर आप धैर्यपूर्वक अध्ययन में लगे रहे एवं अध्ययन पूर्ण करके ही लौटे। वहां आपने 4 वेद, 6 शास्त्र, 18 पुराण, 9 व्याकरण आदि को कंठाग्र कर गहन अध्ययन किया और संस्कृत का पूर्ण रूपेण ज्ञान प्राप्त किया। समय समय पर श्री हिम्मतरामजी महाराज को आप वेद आदि पढ कर सुनाया करते थे। जो भी कोई शास्त्रार्थ के लिए आते आप उससे शास्त्रार्थ करते एवं अपने तर्कों से परास्त कर देते। आपने श्री महाराज की वाणी के पाॅंच ग्रन्थों की संस्कृत में रचना की वे सभी ग्रन्थ करौली रामद्वारा में उपलब्ध है।

श्री दिलषुद्धराम जी महाराज उस समय गादी पर विराजमान थे। आपका स्वास्थ्य नरम चल रहा था। आपने दो सन्तों के नाम का संकेत किया कहा गंगापुर के साध श्री हरिसुखराम जी, या करौली के साध श्री धर्मदास जी को गादी पर बिठाना। अतः महाराज श्री के परम धाम पधार जाने पर सन्तजन गंगापुर के साध को लेने हेतु गये पर वे वहां नहीं मिले। तब कपासन गये वहां उनके गुरू साध दुर्लभराम जी से चर्चा हुई तो उन्होंने इन्कार कर दिया एवं किसी अन्य सन्त को ढूंढने हेतु कहा। इस पर वे सन्त शाहपुरा लौटकर आ गये एवं सारी बातें बता दी। तब कुछ संतों को करौली भेजा गया। संतों ने वहां जाकर श्री धर्मदास जी महाराज से निवेदन किया कि महाराज श्री ने आपको याद फरमाया है अतः आप शाहपुरा पधारे। आप तुरंत शाहपुरा के लिये प्रस्थान कर, शाहपुरा पहुॅंचे और सूर्य पोल में प्रवेष किया तब मालूम हुआ कि महाराज श्री तो परम धाम पधार गये और आज 17 दिन हो गये।

सन्त एवं गृहस्थ एकत्र थे ही। उन्होंने राजाधिराज श्री नाहरसिंहजी को भी बुला लिया वे भी आ गये एवं उनका हस्त कमल कर कंवरपदा की छतरी में लाकर विराजमान किया सबने निवेदन किया कि यह दिवंगत महाराज श्री का आदेष है और हम सबका आग्रह है कि आप गादी पर विराजें और समाज का शासन भार संभाले। इस पर महाराज ने कहा कि ठीक है पर गादी पर आज न बिठाकर दो दिन बाद बिठाना, यह उत्तम रहेगा। पर सबने सोचा कि यदि आप कहीं चले गये तो महाराज के आदेष का पालन कैसे होगा और नये सिरे से फिर ढूॅंढना पडेगा। अतः सबने निवेदन किया कि आप तो आज ही गादी पर विराजे। महाराज ने स्पष्ट कहा कि देखो बाद में पछताना पडेगा। पर आपकी बात किसी ने नहीं मानी और आपको उसी दिन कार्तिक बुदी 13 सोमवार सं. 1953 को गादी पर विराजित कर दिया। सबका मन प्रसन्न हो गया। पर दुर्भाग्य ही रहा कि आप धर्म के प्रचार प्रसार हेतु बाहर नहीं पधार सके क्योंकि बहुत जल्द ही आपने अपने नष्वर शरीर का परित्याग कर दिया। 1954 का चातुर्मास आपने शाहपुरा में ही किया एवं उसी वर्ष कार्तिक सुदी 5 रविवार को आप परमधाम पधार गये। यदि उस समय आपकी बात को मान लेते तो शायद ये दुःख नहीं उठाना पडता। आप बहुत उच्च कोटि के विद्वान और त्यागी थे। यदि आप कुछ समय गादी पर विराजते तो धर्म का खूब प्रचार प्रसार कर इसकी गौरव गरिमा को बढाते, ऐसा विष्वास है। समाज में आपका शासन केवल 1 वर्ष 7 दिन तक रहा। अतः धर्म प्रचार प्रसार का समय आपको नहीं मिल सका। इतने अल्पकाल में कोई निर्माण कार्य भी नहीं हो पाया। आपके खालसा का कोई रामद्वारा भी नहीं है क्योंकि आपके केवल एक षिष्य हुए और वे भी गुरू धाम में ही रहे। उनके भी कोई षिष्य नहीं हुआ। अतः आपकी षिष्य परम्परा भी नहीं है।

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