Ramsnehi Sampraday

Swami Ramcharan ji Maharaj Jeevan Parichay

            स्वामी जी श्री रामचरण जी महाराज

निर्गुण भक्ति चहुं दिषि नहीं,

नहीं राम का जाप।

जिनकूं परगट करन कूं,

आये आपों आप।।

अर्जुन को उपदेष देते हुए गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है –

            परित्राणाय साधूनां,

                         विनाषाय च दुष्कृताम्।

                धर्मसंस्थपनार्थाय, संभवामी युगे युगे।।

अर्थात् सज्जनों की रक्षा करने के लिये एवं दुष्टजनों का संहार करने के लिये मैं प्रत्येक युग में प्रकट होता हूॅं और धर्म की स्थापना अथवा रक्षा करता हूॅं।

सरल रूप में इस कथन को यों मान लें कि जब जब भी धर्म का ह्रास होता है और अधर्म की प्रवृत्तियां बढती हैं।  तब कोई ना कोई महापुरूष अवतरित होता है और समाज को नई चेतना एवं नवीन दिषा देता है। स्वामीजी श्री रामचरण जी महाराज के बारे में भी यह कथन सही उतरता है। स्वामीजी के आविर्भाव के समय देष की राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति अच्छी नहीं थी।

वह युग उथल पुथल का युग था। मुगल सम्राटों के शक्तिहीन हो जाने से साम्राज्य बिखरने लग गया था फलस्वरूप सूबेदार एवं राजा लोग स्वतंत्र होकर अपने राज्य का वर्चस्व बढाने लगे। राजस्थान की हालत भी चिन्तनीय थी। पुत्र राज्य के लिये अपने पिता की भी हत्या कर सकता था। अपने भाईयों के विरूद्ध लुुटेरों को आमंत्रित कर सकता था। भयंकर अराजकता एवं निरंतर उलट फेर के कारण देष की स्थिति डांवाडोल थी।

इस आतंक पूर्ण वातावरण का तत्कालीन समाज पर प्रभाव पडना स्वाभाविक था। समाज का कोई आदर्ष नहीं था। परस्पर आपसी मनमुटाव ने समूचे समाज को जर्जर कर डाला था। सम्पूर्ण देष में विश्रृंखलता एवं उद्भ्रान्ति के साम्राज्य में अंधविष्वास तथा रूढीवादिता बढ रही थी। ऐष्वर्य और विलासिता की बाहुल्यता भी अधिक बढ गई थी। अनेक प्रकार की कुरीतियों का प्रचलन जारों पर था। उस समय धार्मिक स्थिति भी विषेष अच्छी नहीं थी। अनेक सम्प्रदाय एवं मतमतान्तर बढ रहे थे। तीर्थ एवं देवालय विलास तथा जीवन यापन के केन्द्र बन गए व सगुणोपासक भी बने। लोगों का धार्मिक जीवन आडम्बरग्रस्त था। लोगों के जीवन में गहन निराषा व्याप्त हो गई थी। ऐसी अवस्था में मानव मन का सांसारिक प्रपंचों से हट कर आध्यात्मिक चिन्तन की ओर अग्रसर होना स्वाभाविक था।

ठीक ऐसे समय में श्री रामचरण जी महाराज का आर्विभाव हुआ। उन्होंने अपनी साधना, त्याग और तप के द्वारा समाज को नई चेतना दी एवं आध्यात्मिकता की ओर लोगों का रूझान बढाया। अपना मौलिक चिन्तन, अनुभव एवं वाणी द्वारा एक नए युग का सूत्रपात किया।

जन्म – स्वामी जी श्री रामचरण जी महाराज का जन्म माघ शुक्ला 14 शनिवार संवत् 1776 को अपने ननिहाल सोडा नामक ग्राम में हुआ। यह स्थान जयपुर जिले के मालपुरा नामक नगर के समीप है। आपके पिताजी का नाम बख्तराम जी तथा माताजी का नाम देउजी था। ये मालपुरा के समीप बनवाडा नामक ग्राम के रहने वाले थे। इनकी जाति विजयवर्गीय वैष्य गौत्र कापडी थी। स्वामी जी का बचपन का नाम रामकिषन जी था।

बाल्याकाल – जन्मपत्री बनाने वाले पण्डित ने इनके उच्चग्रह नक्षत्रों को देखकर यह भविष्य वाणी की कि बालक बडा तेजस्वी होगा। आप बहुत हॅेसमुख एवं आर्कषक थे। शरीर स्वस्थ होने के साथ ही वे कुषाग्रबुद्धि वाले भी थे।

विवाह – श्री विनतीरामजी द्वारा लिखित जीवन चरित्र पुस्तक में इनके विवाह का उल्लेख किया है। आपका विवाह चांदसेन नामक ग्राम में, एक सम्पन्न परिवार में गिरधारीलाल जी खूंटेटा की सुलक्षणी कन्या गुलाब कंवर बाई के साथ हुआ। इस अवधि के आपके एक पुत्री का जन्म हुआ जिनका नाम जडाव कंवर था। केवल श्री जगन्नाथ जी कृत गुरू लीला विलास में इसका उल्लेख मिलता है।

राज्य सेवा – श्री रामचरण जी म. ने जयपुर राज्य के अन्तर्गत किसी उच्च पद पर निष्ठा पूर्वक राजकीय सेवा की। कुछ अन्य लेखकों एवं श्री लालदास जी की परची के अनुसार उन्होंने जयपुर राज्य के दीवान पद पर काम किया। उनकी निष्ठा निष्पक्षतगेा एवं न्याय प्रियता से तत्कालीन सभी लोग प्रभावित थे। उनके पिता के मोसर के अवसर पर राज्य की ओर से टीका पगडी का दस्तूर आना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि वे किसी सम्मानित पद पर आसीन थे। वि. सवंत् 1800 ई. में स्वामीजी के पिताजी का देहावसान हो गया जब आप 24 वर्ष के हुए तब एक दिन आप अपने ससुराल में दिन को पांव पसार लंबे करके पौढे हुए थे। उसी समय एक ज्योतिषि परची तुलाराम जी के अनुसार यति श्री भृंगीनाथ जी ने आपके पैर की पगथली को देखकर कहा कि यह एक ऐसा होनहार प्राणी है जिसके चरण में उध्र्व रेखा है जिसने चक्र को दबा रखा है। अत़ः या तो ये उत्कृष्ट राम के भक्त बन कर पुजायेंगे या चक्रवर्ती सम्राट बनेंगे। इन बातों का स्वामीजी के ह्रदय पर गहरा प्रभाव पडा।

उसी दिन रात्रि स्वप्न में देखा कि उनका स्नानार्थ नदी में प्रवेष करते समय उनका पैर फिसल गया। वे नदी की लहरों के साथ बहने लगे। नदी का प्रवाह तेज था वे बहे चले जा रहे थे। उसी समय एक शुभ्र वेषधारी वयोवृद्ध महात्मा आये उन्होंने उनका हाथ पकड कर नदी के जल से बाहर निकाल दिया। इसी समय स्वप्न भंग हो गया। पर इस स्वप्न का उनके मन पर गहरा प्रभाव पडा। वैराग्य भावना तो पहले ही उनके मन में घर कर रही थी और घर – बार आदि में मन नहीं लगता था। पर इस घटना ने उनके जीवन कों ही बदल दिया। वे सब कुछ छोडकर उन्हीं महात्मा जी की खोज में निकल पडे। जयपुर राज्य से प्राप्त दीवान पद के वैभव एवं सुखसाधनों का परित्याग कर सं. 1808 में आपने गुरू की खोज के लिए प्रस्थान किया। प्रकृति से दिव्य संकेत प्राप्त कर आपने दक्षिण दिषा में प्रयाण किया। घूमते घामते आप शाहपुरा नगर में पहुॅंचे। वहाॅं आपने स्वप्न दृष्टा महात्मा की मुख मुद्रा का वर्णन कर लोगों से पूछताछ की तब लोगों ने बताया कि इसके अनुरूप महात्मा निकटवर्ती दांतडा ग्राम शाहपुरा से 10 मील पूर्व दिषा में विराजते हैं। यह सुन कर आप अति आनन्दित हुए और तुरंत दांतडा के लिये प्रस्थान कर दिया। वहाॅं पहुॅंच कर आपने स्वामी श्री कृपाराम जी महाराज के दर्षन किये, बिल्कुल वही मूर्ति जिसे स्वप्न में देखा था। आपने उन्हें दण्डवत प्रणाम किया और स्वामीजी श्री कृपाराम जी महाराज ने अपना वरदान हस्त राजछत्र की भाॅंति इनके मस्तक पर फैला दिया। आप आनन्द विभोर हो गये।

श्री कृपाराम जी म. एवं रामकिषन जी के बीच परस्पर वार्तालाप हुआ। उन्होंने अपना ह्रदय खोलकर श्री कृपारामजी म. के सामने रख दिया और दीक्षा देने की प्रार्थना की। श्री कृपारामजी म. रामकिषन जी के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए। उन्हें लगा कि जैसे महान् विभूति उनके सामने अवसर की प्रतिक्षा में हैं। उनका मन आनन्द से गद्गद् हो गया। फिर भी उनकी परीक्षा लेने हेतु वैराग्य और योग के मार्ग में आने वाली कठिनाईयों का वर्णन किया एवं उन्हें घर लौट जाने का सुझाव दिया। पर रामकिषन जी अपने निष्चय पर अटल रहे और घर लौटने से स्पष्ट मना कर दिया। कुछ दिन इसी प्रकार विचार विमर्ष में निकल गये। अन्त में आपकी दृढता देख कर श्री कृपारामजी महाराज ने आपको दीक्षित करने का निर्णय लिया। संवत् 1808 भाद्र शुक्ला 7 गुरूवार को स्वामीजी श्री कृपारामजी महाराज ने श्री रामकिषन जी को गुरू मन्त्र व उपदेष देकर दीक्षित किया। उनके नाम रामकिषन को परिवर्तित करके रामचरण नाम रखा। ये ही रामचरण आगे चल कर रामस्नेही सम्प्रदाय के आद्याचार्य स्वामी जी श्री रामचरण जी महाराज के नाम से प्रसिद्व हुए। दीक्षा लेने के पष्चात् गुरू आज्ञा पाकर स्वामी जी श्री रामचरण जी महाराज ने गूदड वेष धारण कर लिया क्योंकि स्वयं स्वामी जी महाराज गूदड वेष धारण करते थे और निरंतर साधना में लीन रहने लगे। सात वर्ष तक इस वेष में रहे। वे त्यागी सन्त थे। संसार का कोई भी प्रलोभन उन्हें अपने पथ से नहीं डिगा सका। कहते हैं एक बार एक रसायन से भेंट हुई। उसने आपको ताम्बा से सोना बनाने का गुप्त रहस्य बताना चाहा। पर आपने उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया यह कह कर कि हमें तो राम रसायन प्राप्त हो गई है। संवत् 1815 में श्री कृपाराम जी महाराज ने अपनी षिष्य मण्डली के साथ गलताजी  जयपुर के पास के मेले हेतु प्रस्थान किया। श्री रामचरण जी भी साथ में थे। एक स्थान पर साधु मण्डली के लिये भोजन बनवाया तो कुछ सन्तों ने बडा बखेडा किया एवं तर्क वितर्क किए। स्वामी जी इसे देखकर बडी चिन्ता करने लगे। फिर जलती हुई कुछ लकडियों से जब चींटियों को निकलते देखा तो उनका मन हाहाकार कर उठा और विचार किया कि क्या इस प्रकार के कार्योें से ही ब्रहमा की प्राप्ति हो सकती है? उन्होंने अपना यह विचार गुरूजी के समक्ष रखा।

श्री कृपाराम जी म. ने उनके वैराग्य की उच्च अवस्थाा को पहचान कर उन्हें प्रवृत्ति मार्ग त्याग कर निवृति मार्ग ग्रहण करने की षिक्षा दी। यह विचार उन्हें उत्तम लगा कि सब प्रकार का आरम्भ छोडकर निरारम्भ होकर रहो। आपने गुरू से आज्ञा प्राप्त कर गूदड वेष का परित्याग कर दिया। गुरू महाराज ने अपना वरद हस्त श्री रामचरण जी के मस्तक पर रखा। आर्षीवाद पाकर आप कृतार्थ हो गये। आप निद्र्वन्द भाव से विचरण करने लगे। बचपन के संस्कार सगुण भक्ति के थे अतः निर्गुण और सगुण का अंतद्र्वन्द उनके मन में चलता रहा। गुरू से आज्ञा पाकर आप वृन्दावन की ओर चल पडे। रास्ते में उनको एक महान तेजस्वी संत के दर्षन हुए। श्री गुरू लीला विलास के अनुसार उस संत ने पूछा:- रामस्नेही तुम कहां चलिया उसने स्वामीजी से वृन्दावन जाने का कारण पूछा तो आपने सब कुछ स्पष्ट बता दिया। उस संत ने आपको वृन्दावन जाने का मोह छोड कर नाम स्मरण की उपासना हेतु अपने गुरू के पास लौट जाने को कहा। ऐसा कहते हैं कि आप ज्योंहि मुड कर एक दो कदम चले होंगे कि वह संत अदृष्य हो गया। स्वामी जी पर इस घटना का गहरा प्रभाव पडा। वे विस्मित होकर विचार करने लगे कि क्या साक्षात् ईष्वर ने ही उन्हें दर्षन देकर आदेष प्रदान किया है। गुरू के पास लौट कर आपने सारी घटना का विवरण सुनाया। श्री कृपारामजी म. ने उन्हें राम नाम की उपासना के प्रति निष्ठावान होने का आर्षीवाद प्रदान किया। कुछ समय आप जयपुर के आस पास ही रहे और उसके  पश्चात् सं. 1817 में आप भीलवाडा आये। वहाॅं उन दिनों सगुणोंपासना और मूर्ति पूजा का प्रबल प्रचार था। लोग बाह्य आडम्बरों में फंसे हुए थे। भीलवाडा नगर के पष्चिम दिषा में मियाचंद जी की बावडी में एक गुफा को साधना स्थल चुना क्योंकि आपको निर्जन एवं एकान्त स्थल ही पसंद था। न कहीं आना न कहीं जाना। निरंतर राम नाम का सुमिरन चल रहा था। धीरे धीरे लोगों को आपके बारे में ज्ञात हुआ। आपकी त्याग भावना से प्रभावित होकर लोग दर्षनों के लिए आने लगंे। भक्ति की भागीरथी बहने लगी। इस अवधि में उनके कई षिष्य बन गये उनमें देवकरण, कुषलराम व नवलराम मुख्य थे।

प्रारम्भ मे स्वामी जी महाराज को भीलवाडा में अनेक कठिनाईयों का सामना करना पडा। कुछ लोग स्वामीजी के प्रभाव को सहन नहीं कर सके और उन्हें मारने के षड्यन्त्र रचने लगे। आपको भोजन में विष भी दिया गया पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। आप पर तलवार, लाठियों आदि के प्रहार किये गये पर आपका बाल भी बांका नहीं हुआ। भीलवाडा के ही कुछ लोगों ने उदयपुर के तत्कालीन महाराणा अरिसिंह को षिकायत की। इस पर महाराणा ने कुछ लोगों को स्वामी जी से मिलने को भेजा। इस बात से स्वामीजी के मन में बडी पीडा हुई और वे भीलवाडा से कुहाडा नामक स्थान पर आ गये और साधना में लीन हो गये। उदयपुर महाराणा की शंका का निवारण होने पर आप वापस भीलवाडा आ गये और लगभग दस वर्ष तक भीलवाडा में रहे। यहीं आपको सुरति शब्द योग का ज्ञान हो गया था। वहीं पर रहते हुए आपने वाणी की रचना की। आपके गुरू श्री कृपाराम जी म. ने भी अणभैवाणी को मंगा कर देखा तथा आनंद से ओतप्रोत हो गये। इस में कुल 36397 शब्द हैं। नियमित रूप से रामद्वारों एवं राम धाम में इसका पाठ होता है। कलियुग में मानव ह्र्रदय को धोने के लिए यह कृति भक्ति भागीरथी है। आपके निवास हेतु वि. सं. 1822 में देवकरण जी तोषनीवाल ने रामद्वारा का निर्माण कराया।

फूलडोल मेले का श्री गणेष भी भीलवाडा से ही हुआ। भक्तों ने मिलकर वार्षिक उत्सव का आयोजन किया, स्वामीजी महाराज उसमें पधारे। जब देवताओं ने पुष्प वृष्टि की इसीलिए आपने उस उत्सव को फूलडोल का नाम दिया। इसका आरम्भ संवत् 1822 से जाना जाता है। आप सं. 1825 तक भीलवाडा में रहे। इस बीच में स्वामी जी किसी जगह राम नाम के प्रचार हेतु पधारे थे उस समय तक स्वामीजी महाराज ने भी अपना मानस भीलवाडा छोडने का बना लिया था। अतः सं. 1826 में आप शाहपुरा आ गये। उस समय शाहपुरा में राजा रणसिंह जी राज्य करते थे। राजा ने आपका भव्य स्वागत किया। स्वामीजी महाराज ने राजाओं के श्मषान में राजा भारतसिंह की छतरी में अपना आसन लगाया। उस समय आपके साथ 16 संत थे। यह संख्या निरंतर बढती हुई आपके समय में 225 तक पहुॅंच गई। उस छतरी में ही बैठकर आप राम भजन करते तथा उपदेष भी देते थे। उनका उपदेषामृत पान करने के लिये धीरे धीरे भक्तों और दर्षनार्थियों की संख्या बढने लगी। राजा जी व राणा जी भी नित्य दर्षनार्थ उपस्थित होकर उपदेष श्रवण करते थे। स्वामी जी महाराज सब प्राणियों को समान समझकर उपदेष देते थे। उनकी दृष्टि में राजा, रंक, ऊॅंच, नीच का कोई भाव नहीं था। इस समानता का प्रमाण तो आज भी रामधाम में देखने को मिलता है। फूलडोल के अवसर पर किसी के आसान नहीं लगाया जाता सब फर्ष पर ही बैठते है चाहे कोई भी हो। स्वामीजी महाराज के साथ भीलवाडा से जोे भी गृहस्थ षिष्य शाहपुरा आये उन्हें शाहपुरा में बसने के लिये राजा रणसिंह ने सब सुविधायें दी। एक नये बाजार का निर्माण किया गया जिसे आज भी नया बाजार ही कहते हैं। स्वामीजी महाराज शाहपुरा में पधारे तभी से ही होली के अवसर पर भीलवाडा की भाॅंति फूलडोल मेला मनाया जाने लगा। पहले यह छतरियों में ही मनाया जाता था। राजा रणसिंहजी के पुत्र श्री भीमसिंहजी संवत् 1831 में गद्ी पर बैठे। आपके प्रयास से फूलडोल का क्षेत्र बढा एवं तभी से होली के दिन महाराज नगर में पधारने लगे। रात्रि जागरण, कीर्तन, भजन के पष्चात् सवेरे वापस आप अपने स्थान पर पधार जाते। यह परम्परा आज भी बराबर चल रही है। स्वामीजी श्री रामचरणजी महाराज ने अपनी साधना, त्याग और तप के प्रभाव से तत्कालीन संत समाज में अपना विषिष्ट स्थान बनाया। रामस्नेही सम्प्रदाय का प्रारम्भ कर समाज को एक नई चेतना और नवीन दिषा दी, भक्ति का अनुपम मार्ग बताया। सांसारिक भोगों का तिरस्कार करते हुए राम नाम की गंगा प्रवाहित की। क्या राजा क्या रंक सब महाराज श्री के दर्षनों के लिये लालायित रहते थे। फलस्वरूप आपकी ख्याति इस प्रदेष में ही नहीं बल्कि समस्त भारत में फैल गई। कहते हैं कि आपने अपने जीवन में अनेक परचे चमत्कार भी बताये अर्थात् जिस जिज्ञासु ने जिस घडी जो भी कामना की उसी समय वह पूर्ण भी हो गई। नेत्रदान, पुत्रदान, जीवनदान से लेकर छोटी-मोटी अनेक घटनायें है जिनसे राम नाम की गंगा उत्तरोतर बढती गई एवं आपकी ख्याति भी चरम सीमा पर पहुॅंच गई।

आपकी जीवन गाथा को कुछ शब्दों में बाॅंधना गागर में सागर भरने के समान है। आप अनन्त कृपालु थे। कहते हैं आपका शरीर केवल तेज पुंज का था। आपका व्यक्तित्व हर प्राणी को बरबस अपनी ओर आकर्षित कर लेता था। आप शरण में आने वाले व्यक्ति के मन की बात जान लेते थे, और यथासम्भव उसे पूर्ण भी कर देते थे। स्वामीजी रामचरण जी महाराज वैषाख कृष्ण पंचमी गुरूवार सं. 1855 को शाहपुरा में ही ब्रहम्लीन हुए। कहते हैं कि प्राणी के ब्रहम्लीन होने पर भी उनके होठ हिलते रहे। उन अधरों के हिलने से राम नाम की ध्वनि का आभास हो रहा था। सहस्त्रों व्यक्तियों की उपस्थिति में आपका अन्तिम संस्कार उस छतरी के पास ही किया गया। आपकी देह को अग्नि के समर्पित किया उस समय आपके शरीर से लिपटा कम्बल अग्नि में नहीं जला, ज्योें के त्यों राख में सुरक्षित निकला वह कम्बल आज भी सुरक्षित है एवं फूलडोल के समय दर्षनार्थ रखा जाता है। उस स्थान पर रामनिवास धाम नामक विषाल आराधना स्थल रामस्नेही सम्प्रदाय की मुख्य पीठ के रूप में विद्यमान है। यह स्वामीजी महाराज की पुण्य स्मृति का पवित्र प्रतीक है जो उनकी महिमा को चिरस्थायी बनाये हुए है। आज लगभग 253 वर्ष पष्चात् भी रामस्नेही सम्प्रदाय राष्ट्र के अनेक उतार चढाव देखते हुए भी इसका स्वरूप निखर रहा है और अबाध गति से उत्तरोतर प्रगति कर अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप बना लिया है।

मानना होगा कि यह सब कुछ स्वामीजी श्री रामचरण जी महाराज की कृपा एवं तपस्या का ही प्रसाद है।

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